(फ्रेंच की कक्षओं में काम की व्यवस्था)

 

(अध्यापकों का एक दल कुछ कक्षओं को लेकर कुछ व्यवस्था करने को योजना बना रहा है? उनमें ले एक माताजी ले पूछता हैं कि इसमें उन्हें आपत्ति हैं या नेही !)

 

कोई आपत्ति नहीं, यह ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम्हें निःसंकोच रूप सें आपस मे व्यवस्थित करना चाहिये ।

 

(जनवरी १९६१)

 

(दो अध्यापकों मैं काम को लेकर गरमागरम बहस चली उनमें ले एक समस्या को माताजी के सामने प्रकट करता है और उनकी राय मांगता है माताजी उत्तर देती हैं :)

 

 सच पूछा जाये तो मेरी कोई राय नहीं है । सत्य की दिष्टि से अभीतक सब कुछ भयंकर रूप से घुल-मिला है, प्रकाश और अंधकार, सत्य और मिथ्या, ज्ञान. और अज्ञान का कम या अधिक सुखद मेल हैं, और जबतक राजों के अनुसार निर्णय होंगे और काम किये जायेंगे तबतक हमेशा ऐसा हीं रहेगा ।

 

  हम एक ऐसे काम का उदाहरण देना चाहते हैं जो सत्य की दिष्टि से किया गया हो, लेकिन दुर्भाग्यवश हम इस आदर्श को चरितार्थ करने से बहुत दूर हैं; और अगर सत्य की दिष्टि, अभिव्यक्त होती भी हो तो क्रिया-रूप लेते-लेते बिलकुल विकृत हो जाती हैं !

 

   अतः, चीजों की वर्तमान अवस्था मे, यह कहना -असंभव है : यह सच हैं और यह झूठ, यह हमें लक्ष्य से दूर ले जाता है, यह हमें लक्ष्य के नजदीक ले आता हैं ।

 

जौ प्रगति करनी हैं उसके अनुसार हर एक चीज का उपयोग किया जा सकता है अगर हम उपयोग करना जानें तो हर चीज उपयोगी बन सकती है ।

 

    महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम जिस आदर्श को चरितार्थ करना चाहते हैं उसे कभी आंखों से ओझल न होने दें और इसी उद्देश्य से सभी परिस्थितियों का लाभ उठायें ।

 

    अंततः, चीजों के पक्ष या विपक्ष मे निर्णय न लेना और साक्षी की निष्पक्षता के साथ घटनाओं की घटते देखना और भागवत 'प्रज्ञा' मे आश्रय लेना ज्यादा अच्छा हैं । वह भले के लिये निश्चय करेगी और जो करना आवश्यक हैं करेगी ।

 

(जुलाई ९९६१)

 

(एक अध्यापक ने माताजी से काम के बारे मे कुछ प्रश्र किये थे और माताजी का व्यक्तिगत उत्तर अपने साथियों को दिखलाया । इस असावधानी पर खेद प्रकट करते हुई उसने तुरत माताजी सै इस विषय मे बात की !)

 

तुमने जो कहा वह कहने मे कोई हर्ज नहीं हैं, क्योंकि देखो, मैं हर एक से पूरी सच्चाई के साथ कह सकती हू, ''मैं सहमत हूं । '' वास्तव मे, यह एक ऐसी चीज है जिसे समझने मई तुम्हें काफी कठिनाई होती हैं, क्योंकि मन इसे स्वीकार नहीं कर पाता । लेकिन हर एक के दृष्टिकोण के पीछे, सत्य का एक पहलू होता है, कभी-कभी सत्य का बहुत छोटा-सा पहलू, और मैं इस पहलू से हमेशा सहमत होती हूं-स्पष्टतः, बशर्ते कि वह दूसरों को हटाकर एकमात्र सत्य बनने की कोशिश न करे ।

 

    और मै इस क्रिया के एक साधन की खोज मे हू जिससे सभी पहलू अभिव्यक्त हो सकें, हर एक अपने स्थान पर, एक-दूसरे को हानि पहुंचाये बिना रहे । जिस दिन मुझे यह साधन मिल जायेगा, उस दिन मै स्कूल को पुनर्व्यवस्थित करने लग जाऊंगी । तबतक, तुम हमेशा' विचारों को मत सकते होरा यह हितकर है, जबतक कि यह न तो कट्टर हो, न ऐकांतिक, न उग्र, और जबतक कि तुम आपस में कभी न ज्ञगज्ञो !

 

(अगस्त १९६१)

 

(३)

 

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